कुछ कहे
"कुछ कहे" दिल की दहलीज़ पर दस्तक से निकली वो रचना है जो शायद एक स्वतंत्र धारा बन के निकली है । अपने अन्दर समाये हुए कई भावो को कभी कविता के द्वारा , कभी गीतों के द्वारा निकालने का प्रयास है । ये कुछ कहने का प्रयास है ।
Wednesday, May 25, 2011
वो पहली मुलाक़ात
वो पहला एहसास
किसी ख़ास के अपना होने का
२६ मे यही वो तारिख है
जिसने दिलाया , समझाया , एहसास कराया
उस अद्भुत अनुभूति का
उस अभिव्यक्ति का .......
Monday, June 28, 2010
लडखडाया वो समय का टुकड़ा
न किनारा हाथ में
न तिनका ही साथ में
बहता चला गया
वो समय का टुकड़ा
लडखडाया वो समय का टुकड़ा
शुरू हुआ था जबसे
सपने बुने थे तंबसे
रंग फ़ैल गया
मंज़र बदल गया
लडखडाया वो समय का टुकड़ा
तेरा नाम बन के जिया था
न मुफलिसी में बसा था
मेरा प्यार मेरे दिल में
तेरा नाम बन के जिया था
चमकते तारे आसमान में
होंगे नज़ारे इस जहाँ में
रूप तेरा बसा हुआ था
ये दिल तभी तो धड़क रहा था
मेरा प्यार मेरे दिल में
तेरे नाम से जिया था
Saturday, June 26, 2010
झूला और मै
तू कैसे इतना ऊपर जाता ?
दो रस्सी में बंधा शाख से
फिर भी पेंग लगाता ऐठ से ?
एक बार कभी मैंने भी
ऐसे ही उड़ना चाहा था
कस के लेकिन बंधा रिश्तो से
उड़ान भर नहीं पाया अब तक
< झूले का उत्तर>
पेंग लगते समय मै झूमू
चाहे गगन आसमा चूमू
शाख से मेरा अटूट वासता
न छुटता मुझसे कभी वो रिश्ता
< झूले का दर्शनशास्त्र>
नदिया को जब खोला खूटे से
उसने अपनी रफ़्तार पकड़ ली
काट किनारा जब बढ़ी चली वो
न जाने कब नाले में मिल गयी !
किनारा था तो दिशा थी
किनारा था तो सहारा था
किनारा था तो ले थी
किनारे का किनारा भटकाव बन गया
पेंग लगाता , ऊँचा उठता
झूला ऐसी बात कह गया
मै निशब्द खड़ा रहा वहां पर
कभी पेंग को देखता ,
कभी रस्सी और शाख को !!!!!
Wednesday, January 27, 2010
एक परिंदा देखा मैंने
कुछ सहमा कुछ घबराया था वो
न जाने कौन सा डर था उसको
मन में उसके समाया था जो
जा कर थोडा नज़दीक मैंने
हलके से छू लिए उसे
मेरी छुवन में शायद उसने
प्यार की गर्मी महसूस की थी
तुरंत लिपट गया वो मुझसे
फूट फूट के रोने लगा
बड़े इत्मीनान से मैंने उससे बैठाया
और पानी पिलाया
समय गुजरा ...बाते शुरू हुई ..और परिंदे ने कहा
मैं हिन्दुस्तान हूँ
Monday, January 25, 2010
न जाने कब बारिश होगी
कहीँ किसी तपिश से धुआ उठा होगा
न जाने कब बारिश होगी
गर्मी तो पहले भी बरसी थी सूरज से
लेकिन इस बार किरणों में अंगारे बसे हैं
पिछली बारिश में सभी पत्ते भीग गए थे
कुछ नए जन्मे,कुछ बड़े हो गए थे
चारो तरफ हरियाली थी, जीवन था, खुशहाली थी
हर इंसा की जेब में खुशियों का बटुवा था
दिन बीतते गए, गर्मी आती गयी ,
खर्चे बढ़ते रहे और बटुवा खाली होता रहा
धरती को तगारी समझ, सूरज अलाव जलाता रहा
हलकी भूरी ताई ने हरियाली का दम घोट लिया
इतने पर भी कभी हवाओ में काला धुआ नहीं उड़ा
पर अबकी बार ये तपिश किरणों की नहीं अंगारों की है,
धुआ उठाने लगा है - न जाने, कब बारिश होगी
Thursday, August 20, 2009
कई दिन हुए उस आग को लगे
याद है मुझे वो लकड़ी की कुर्सी ..जिनके हत्तो पर खड़े होकर मै टांड का समान निकला करता था। उसी टांड पर परीक्षा के दिनों में पापा मेरा केरम भी रख देते थे।
इनते दिनों की आग में वो केरम भी मेरा बचपन लेकर राख के साथ उड़ गया। अब किसी धुएं से कोई राख नही उड़ती। कई दिन हुए उस आग को लगे।