Monday, June 28, 2010

लडखडाया वो समय का टुकड़ा

लडखडाया वो समय का टुकड़ा
न किनारा हाथ में
न तिनका ही साथ में
बहता चला गया
वो समय का टुकड़ा
लडखडाया वो समय का टुकड़ा

शुरू हुआ था जबसे
सपने बुने थे तंबसे
रंग फ़ैल गया
मंज़र बदल गया
लडखडाया वो समय का टुकड़ा

तेरा नाम बन के जिया था

तन्हाई में छिपा था
न मुफलिसी में बसा था
मेरा प्यार मेरे दिल में
तेरा नाम बन के जिया था

चमकते तारे आसमान में
होंगे नज़ारे इस जहाँ में
रूप तेरा बसा हुआ था
ये दिल तभी तो धड़क रहा था
मेरा प्यार मेरे दिल में
तेरे नाम से जिया था

Saturday, June 26, 2010

झूला और मै

एक दिन मैंने झूले से पूछा
तू कैसे इतना ऊपर जाता ?
दो रस्सी में बंधा शाख से
फिर भी पेंग लगाता ऐठ से ?

एक बार कभी मैंने भी
ऐसे ही उड़ना चाहा था
कस के लेकिन बंधा रिश्तो से
उड़ान भर नहीं पाया अब तक

< झूले का उत्तर>


पेंग लगते समय मै झूमू
चाहे गगन आसमा चूमू
शाख से मेरा अटूट वासता
न छुटता मुझसे कभी वो रिश्ता

< झूले का दर्शनशास्त्र>

नदिया को जब खोला खूटे से
उसने अपनी रफ़्तार पकड़ ली
काट किनारा जब बढ़ी चली वो
न जाने कब नाले में मिल गयी !

किनारा था तो दिशा थी
किनारा था तो सहारा था
किनारा था तो ले थी
किनारे का किनारा भटकाव बन गया

पेंग लगाता , ऊँचा उठता
झूला ऐसी बात कह गया
मै निशब्द खड़ा रहा वहां पर
कभी पेंग को देखता ,
कभी रस्सी और शाख को !!!!!